India was divided on the basis of secularism and not religion

भारत का बटवारा धर्म नहीं धर्मनिरपेक्षता के आधार पर हुआ था

हस्तक्षेप

यह बात एक आम धारणा का रूप ले चुकी है कि देश का बटवारा धर्म के आधार पर हुआ था। इस धारणा से दो तर्क मजबूत होते हैं। पहला कि भारत एक हिन्दू आबादी वाला देश था और उसकी अल्पमत मुस्लिम आबादी ने इस्लाम के नाम पर अपना हिस्सा ‘पाकिस्तान’ ले लिया। इसलिए बचा हुआ भारत स्वतः ही हिन्दू राष्ट्र हो जाता है। दूसरा, धर्म के आधार पर बटवारे में मुस्लिमों द्वारा अपना हिस्सा ले लेने के बाद जो मुसलमान हिन्दू भारत में बच गए उन्हें हिन्दू बहुसंख्यकवाद की अधीनता स्वीकार करनी पड़ेगी।

स्वतंत्रता के बाद के कुछ सालों तक आरएसएस, हिन्दू महासभा और जनसंघ भारत के मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने की वकालत पहले तर्क के आधार पर ही करते रहे थे। लेकिन जब यह स्पष्ट हो गया कि यह सम्भव नहीं है तब गोलवलकर के समय में आरएसएस ने यह लाइन ली कि भारतीय मुसलमान यहां रहें लेकिन हिन्दू वर्चस्व स्वीकार करें।

भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की कुंठा से ग्रस्त किसी भी व्यक्ति से बात करेंगे तो उसकी बुनियाद में आपको धर्म के आधार पर भारत के बटवारे की ही बात सामने आएगी। यानी भारत के संविधान की प्रस्तावना से सेक्युलर और समाजवादी शब्द हटाने की आरएसएस और भाजपा की साज़िश को जो भी जनसमर्थन मिलता है उसके पीछे इस गलत धारणा का ही असर है कि भारत का बटवारा धर्म के आधार पर हुआ था। इसे आप हिन्दुत्ववादी शक्तियों की सफलता से ज़्यादा इतिहास की तथ्यात्मक जानकारी का प्रसार कर पाने में सेक्युलर पार्टियों की विफलता का परिणाम कह सकते हैं। हद तो यह है कि बहुत से सेक्युलर लोग भी इसी झूठ को अनजाने में दोहराकर हिंदुत्व की वैचारिकी को मदद पहुंचाते हैं। इस धारणा पर यकीन करने वाले सेक्युलर लोग साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ किसी गहरे वैचारिक संघर्ष में जाने के बजाये उसे क़ानून व्यवस्था के नज़रिये से देखने की सीमा में बंध जाते हैं।

जबकि ऐतिहासिक तथ्य यह है कि भारत का बटवारा धर्मनीरपेक्षता के आधार पर हुआ था। इसको समझने के लिए भारतीय राष्ट्रवाद के उभार और उसके चरित्र को समझना होगा।

वहीं कांग्रेस में इस बात की स्पष्टता शुरू से ही थी कि उसे समावेशी राष्ट्रीय नेतृत्व विकसित करना है। कलकत्ता में 1886 में आयोजित दूसरे कांग्रेस अधिवेशन में कहा गया कि हिन्दू, ईसाई, मुसलमान और पारसी अपने समाजों के सदस्य होते हुए भी सार्वजनिक मुद्दों पर एक दूसरे का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। 1926 में गुहाटी में आयोजित 41 वें कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष एस श्रीनिवास आएंगर ने एक बार फिर इस बात को मजबूती से स्पष्ट किया कि हमारा उद्देश्य साम्प्रदायिक नेतृत्व और साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के बजाय राष्ट्रीय नेतृत्व और राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व विकसित करना है। एक देशभक्त हिन्दू या मुसलमान को हर समय और हर क़ीमत पर सिर्फ़ अपना ही नहीं बल्कि दूसरे समुदाय का भी नेतृत्व करने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस राष्ट्रवादी विचार का ही प्रभाव था कि मौलाना आज़ाद के कांग्रेस अध्यक्ष बनने से न हिन्दू समाज को दिक़्क़त थी और न पटेल, आएंगर, नेहरू या सुभाष चंद्र बोस के अध्यक्ष बनने से मुस्लिमों या सिखों को दिक़्क़त थी। सब को सब पर भरोसा था और इस आपसी भरोसे पर ही हम दुनिया की सबसे शक्तिशाली साम्राज्य से लड़ रहे थे। जो इस आपसी भरोसे के ख़िलाफ थे वो अंग्रेज़ों के साथ थे।

वहीं भारतीय राष्ट्रवाद की एक अन्य अहम धारा भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद की थी जिनकी पार्टी का ही नाम हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिशन था। यानी यह धारा सेक्युलर के साथ भारत को समाजवादी देश बनाना चाहती थी, वही समाजवादी शब्द जिसे आरएसएस संविधान की प्रस्तावना से हटाना चाहता है। यहां आप कह सकते हैं कि समाजवादी शब्द को प्रस्तावना में जोड़कर इंदिरा गाँधी सरकार ने स्वतंत्रता आंदोलन के इस अहम मूल्य को संवैधानिक दर्जा दे दिया था।

यानी, स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल सभी धाराएं आपसी असहमतियों के बावजूद धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को लेकर आम सहमति रखती थीं।

इसीलिए यह कहना कि भारत विभाजन धर्म के आधार पर हुआ बिल्कुल गलत और हिंदुत्ववादी नैरेटिव है। भारत का बटवारा धर्मनिरपेक्षता के आधार पर हुआ। एक राष्ट्र के बतौर हमें हमेशा याद रखना होगा कि हम सिर्फ़ अंग्रेज़ों से लड़ कर ही स्वतंत्र नहीं हुए बल्कि सेक्युलर और समाजवादी विचारों की विरोधी आरएसएस और हिन्दू महासभा की विचारधारा से भी लड़कर आज़ाद हुए थे।
इस तथ्य से थोड़ा सा विचलन भी भारत को खत्म कर देगा।

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