हिंदुत्व के दर्शन में ही समाहित है नस्लीय और लैंगिक घृणा

हस्तक्षेप

    हमारे राष्ट्रगान के रचयिता कविवर रविंद्रनाथ ठाकुर (टैगोर) ने एक बार कहा था — “नेता जब अपने दल का झंडा पकड़कर गांव और शहर की गलियों में घुस नहीं पाता, तब अपने हाथों में राष्ट्र का झंडा पकड़ लेता है, ताकि जनता उसे ही राष्ट्र समझने की गलती कर दें। मुझे डर लगता है कि पश्चिम के राष्ट्रवाद के गर्भ से पैदा हिटलर किसी दिन राष्ट्रवाद की ओट लेकर भारत नहीं पहुंच जाएं।” टैगोर की लगभग सौ साल पहले दी गई चेतावनी आज सच साबित हो गई है।

    भारत में हिटलरी राष्ट्रवाद पहुंच गया है और इसके प्रतिनिधि के रूप में भाजपा नेताओं के हाथ में तिरंगा लहरा रहा है। जो दल हमारे आधुनिक राष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद और संवैधानिक मूल्यों को ही छिन्न-भिन्न करने का खेल खेल रही है, विविधता में एकता के बहुलतावाद को खत्म करके उसे एकरंगी बहुसंख्यकवाद में बदलने की कोशिश कर रही है, वहीं दल आम जनता की देशभक्ति की भावना से सबसे ज्यादा खिलवाड़ कर रही है और इस खिलवाड़ को ही राष्ट्रवाद के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रही है। यदि भाजपा अपने खेल में सफल हो जाती है, तो निश्चित मानिए, एक आधुनिक और वैज्ञानिक चेतना संपन्न राष्ट्र के निर्माण में ‘हम भारत के लोग’ असफल हो जायेंगे।

    यह असफलता हमारा दरवाजा खटखटा रही है। धीरे-धीरे ही सही, गाँधी के साथ सावरकर के फोटो भी सजने लगी हैं, जिसे हमने स्वाधीनता दिवस के उत्सव में कुछ जगहों में इस बार देखा है। पेट्रोलियम मंत्रालय द्वारा इस बार स्वाधीनता दिवस के अवसर पर जारी विज्ञापन में सावरकर तिरंगे से भी ऊपर टंगे हुए हैं। लाल किले से हिटलरी राष्ट्रवाद के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री ने आरएसएस का गुणगान कर ही दिया है, जिसका वास्तव में रिकॉर्ड आजादी के आंदोलन के साथ धोखेबाजी और अंग्रेजों की मुखबिरी का ही था। अब देश की युवा पीढ़ी को उच्च स्तर से ज्ञान संपन्न करने की कोशिश हो रही है कि आजादी का इतिहास गांधीजी और भगतसिंह से नहीं बनता, कांग्रेस और कम्युनिस्टों से नहीं बनता, बल्कि संघी गिरोह और उसके नायक सावरकर, गोलवलकर और गोडसे से बनता है।

    ये लोग बार-बार देश के लोगों को यह बताना चाहते है कि काँग्रेस कमेटी में नेहरू को छोड़ सब पटेल को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे। पर यह नहीं बताना चाहते है कि ये वे सरदार पटेल थे, जिन्होंने महात्मा गांधी की हत्या के लिए आरएसएस को सीधा जिम्मेदार ठहराया था, उसकी निंदा की थी और उस पर प्रतिबंध लगाया था। जो संघी गिरोह नेहरू बनाम पटेल का विवाद खड़ा करता है, उसे तो अव्वल इसी बात का जवाब देना चाहिए कि लालकृष्ण अडवाणी के रहते प्रधानमंत्री के रूप में झोला उठाकर चल देने वाले फकीर जी कैसे विराज गए? और राजनाथ सिंह जैसे आदमी से गृह मंत्रालय छीन कर अमित शाह को कैसे दे दिया गया, जिनकी गुंडागर्दी का रिकॉर्ड उनके सामने ही संसद में बखान किया जाता है?

    संघी गिरोह और मोदी की ईमानदारी का सबूत तो पहले चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में और अब हरियाणा की एक प्रधानी के चुनाव में ही दिख गया है। अब बिहार का चुनाव सामने है। वहाँ भी ये जिस ईमानदारी से चुनाव की तैयारी में लगे हैं, उसे लेकर चुनाव आयोग को सर्वोच्च न्यायालय आईना दिखा चुका हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र की भाजपा सरकार और उसकी बी-टीम बने चुनाव आयोग को अंतरिम आदेश दे दिया है कि जिन पैंसठ लाख लोगों को आपने मतदाता सूची से बाहर किया है, उनके नाम सार्वजनिक किए जाएं और उन सभी को मतदाता के रूप में पंजीकृत किया जाएं, जिनके पास आधार कार्ड हैं।

    अब चुनाव आयोग की बोलती बंद है। राहुल गांधी द्वारा एक विधानसभा में वोट चोरी के सबूत उजागर किए जाने के बाद अब देश भर के मतदाता सूचियों की जो सीमित छानबीन की जा रही है, उससे राहुल द्वारा वोट चोरी के उजागर पैटर्न की ही पुष्टि हो रही है कि किस प्रकार चुनाव आयोग के साथ मिलीभगत करके भाजपा ने फर्जी तरीके से अपने समर्थकों के नाम मतदाता सूची में शामिल किए हैं और फर्जी मतदान करवाया है। इससे यह भी आशंका बलवती हो गई है कि पिछला लोकसभा चुनाव भाजपा ने जीत नहीं था, बल्कि फर्जी तरीके से विपक्ष को हराया गया है। यह आशंका जितनी बलवती होगी, मोदी सरकार की वैधता भी उतनी ही कमजोर होगी।

    इस सरकार का फर्जीवाड़ा जितना उजागर हो रहा है, उतनी ही जोर-शोर से राष्ट्रवाद के नारे लगाते हुए वह अपनी वैधता बनाए रखने की कोशिश कर रही है। लेकिन संकट इतना गहरा है कि इस राष्ट्रवाद के भी चिथड़े उड़ते नजर आ रहे हैं। संघी गिरोह का राष्ट्रवाद कितना ‘राष्ट्रवादी’ है, इसका पता अमेरिकी साम्राज्यवाद के आगे उसके घुटनाटेकू रवैए से साफ जाहिर होता है, जिसकी मांग पर देश की संपत्ति को बेचा जा रहा है और विदेशी मालों के लिए इस देश के बाजार को खोला जा रहा है, खेती-किसानी को चौपट किया जा रहा है। इसका नतीजा आम जनता को महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी के रूप में भुगतना पड़ रहा है। आज जनता खैरात पर जिंदा है और उसका स्वाभिमान कहीं खो गया है।

    लेकिन यही संकट है, जिस पर जनता को लामबंद करके संघी गिरोह के नकली राष्ट्रवाद को मात दी जा सकती है। इस देश के हर नागरिक को मतदाता के रूप में पंजीकृत होने और हर मतदाता के बुनियादी नागरिक अधिकारों की लड़ाई को आगे बढ़ाने का रास्ता इसी लामबंदी से निकलेगा।

      संघी गिरोह की अल्पसंख्यकों और महिलाओं से नफरत जगजाहिर हैं और हम अपने दैनिक जीवन में भी अक्सर संघी नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा उनके मुखारविंद से इन लोगों के प्रति अश्लील संवाद उच्चारते देखते-सुनते हैं। उन्हें इस पर शर्म भी नहीं आती और वे अपने इस व्यवहार को हिन्दुत्व के गौरव भाव से उचित ठहराते हैं। गोदी मीडिया से बाहर संघी गिरोह द्वारा महिलाओं से निम्न स्तर का व्यवहार करने की घटनाएं पढ़ने को प्रायः मिल जाती हैं। कुछ घटनाएं इतनी महत्व ले लेती है कि गोदी मीडिया के लिए भी उन्हें छुपाना आसान नहीं होता और किसी पेज के कोने-कांटे में उसे जगह देनी ही पड़ती है।

      दरअसल, नस्लीय और लैंगिक घृणा हिंदुत्व के दर्शन में ही समाहित हैं। संघी गिरोह के हिंदुत्व के दर्शन को प्रतिपादित करने का सबसे बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है, जिन्होंने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘हिंदुत्व’ में इसे विस्तार से व्याख्यायित करने की कोशिश की थी। जब 1944 में अमेरिकी पत्रकार टॉम ट्रेनर ने एक साक्षात्कार में उनसे पूछा था : “आप मुसलमानों के साथ किस तरह का बर्ताव करने की योजना बना रहे हैं?”, तो सावरकर का उत्तर था : “एक अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में, आपके यहां के नीग्रो लोगों के साथ जैसा बर्ताव होता है, ठीक उसी तरह का।” अल्पसंख्यकों के प्रति संघी गिरोह का आचार-व्यवहार सावरकर के इसी विचार से निर्देशित होता है। यह इतिहास का सत्य और वर्तमान का तथ्य है कि गोरे अमेरिकियों ने वहां के मूल निवासी नीग्रो के साथ किस प्रकार बर्बरतापूर्वक व्यवहार किया है, उनके नस्लीय सफाए की योजना बनाई है और आज भी उन्हें बाड़ों में जानवरों जैसे कैद करके रखते हैं।

      हिंदुत्व के जिस दर्शन की सावरकर ने स्थापना की है, उसके बारे में उनका साफ-साफ कहना था कि इस हिंदुत्व का हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं है और हिंदुत्व हिंदू राष्ट्र को स्थापित करने की एक राजनीति है। सावरकर के हिंदुत्व को जिन चंद शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है, और वे शब्द हैं : हिंसा, प्रतिशोध, घृणा और बर्बरता। अल्पसंख्यकों के प्रति इन्हीं भावनाओं के समावेश से वे एक आक्रामक और क्रूर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करने का सपना देखते थे। इसलिए नस्लीय घृणा पर टिकी हिंदुत्व की विचारधारा वास्तव में एक फासीवादी राजनीतिक विचारधारा ही है। सभी जानते हैं कि फासीवाद की विचारधारा के प्रणेता हिटलर और मुसोलिनी थे, जो आज भी संघ के प्रातः स्मरणीय पूज्य व्यक्ति है। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि हिंदुत्व भारतीय परिस्थितियों में विकसित फासीवाद है।

      हम सभी जानते हैं कि हिन्दू धर्म ठीक उसी तरह का धर्म नहीं है, जैसे कि इस्लाम और ईसाई धर्म हैं। यह धर्म अपनी विभिन्न शाखाओं के साथ विविधता में एकता को समाहित करते हुए सदियों में विकसित हुआ है और सार रूप में उदार और सहिष्णु है। हिंदू धर्म की यह विशेषता ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के सूत्र में झलकती है। हिंदू धर्म की यही विशेषता आज संघी गिरोह को खटकती है, क्योंकि हिंदू धर्म का यह सार उनके ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना में बाधक है। इसलिए वे जी-जान से दैनंदिन जीवन में हिंदू धर्म के इस सार को खत्म करने, देवी-देवताओं की जनमानस में बैठी उदार छवि को आक्रामक और बर्बर बनाने में लगे रहते हैं। यह सब केवल इसलिए किया जा रहा है कि एक असहिष्णु और बर्बर हिंदू धर्म ही उनकी हिंदुत्व की फासीवादी राजनीति को आगे बढ़ा सकती है।

      इस लक्ष्य को पाने के लिए वे हिंदुओं को राष्ट्रवादी (भारतीय) और गैर-हिंदुओं को राष्ट्रविरोधी (विदेशी या गैर-भारतीय) के रूप में चित्रित करते हैं। हिंदू उनके लिए राष्ट्र है और अल्पसंख्यक इस राष्ट्र में निवास करने वाला मात्र एक समुदाय और इस समुदाय को वे राष्ट्र (हिंदुओं) के अधीन करने का खुलकर ऐलान करते है। इस प्रकार, वे अल्पसंख्यकों को नागरिक अधिकारों से वंचित करके बहुसंख्यकों का गुलाम बनाना चाहते हैं। वे अल्पसंख्यकों का भारत में रहना या नहीं रहना भी बहुसंख्यक हिंदुओं की मर्जी की बात बनाना चाहते हैं।

      जिस तरह हिटलर की फासीवादी विचारधार आधुनिक लोकतंत्र की अवधारणा के खिलाफ थी, उसी प्रकार संघी गिरोह की हिंदुत्व की विचारधारा भी आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ जाती है। आधुनिक लोकतंत्र नस्ल, जाति, भाषा, धर्म, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाती है और समावेशिता के आधार पर नागरिक मूल्यों को स्थापित करती है। लेकिन संघी दर्शन समावेशिता पर नहीं, बहिष्करण पर बल देता है। यह दर्शन ‘एक राष्ट्र, एक जाति, एक संस्कृति’ पर बल देता है और हमारे देश की उस बहुलतावादी संस्कृति और विविधता को नकारता है, जिसकी नींव पर स्वतंत्रता के बाद हम भारत के लोगों ने इस देश को एक आधुनिक राष्ट्र में विकसित करने का संकल्प व्यक्त किया है।

      यह दर्शन गैर-हिंदुओं पर अपने सांस्कृतिक प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए तरह-तरह की तिकड़मों का सहारा लेता है, जिसका एकमात्र मकसद यह है कि किस तरह अल्पसंख्यकों को इस देश की मुख्यधारा से काटकर हाशिए पर पटका जाए और राष्ट्रीय जीवन में उनकी उपस्थिति को महत्वहीन बना दिया जाएं। इसके लिए वे कभी एनआरसी की कवायद करते हैं, तो कभी नई मतदाता सूची बनाने के नाम पर एसआईआर की, ताकि अल्पसंख्यकों और सामाजिक-आर्थिक जीवन में पिछड़े और कमजोर लोगों को नागरिकता और मताधिकार से वंचित कर सके।

      वे प्रायः अल्पसंख्यकों की रोजी रोटी को निशाना बनाकर नफरत फैलाने की राजनीति करते है। वे प्रायः अल्पसंख्यकों को उनकी धार्मिक स्वतंत्रता से वंचित करके उन्हें उनकी उपासना विधियों से महरूम करने की चालें चलते रहते हैं और दैनिक जीवन में हिंदुओं की पूजा पद्धति को, उनके धार्मिक संस्कार और आचरण को और उनके अंधविश्वासों को भी आस्था के नाम पर पूरे समाज में थोपने की कोशिश करते हैं, ताकि इस देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को एक असहिष्णु धार्मिक राष्ट्र में बदला जा सके। वे प्रायः रोजगार की जगह दंगों का सृजन करते हैं, जिसके बहुसंख्यक हिंदुओं के आतंक को कायम किया जा सके।

      अल्पसंख्यकों के खिलाफ उनकी नफरत महिलाओं के खिलाफ निम्न स्तर के आचरण और बलात्कार को भी औचित्य प्रदान करती है। यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि बीफ-प्रेमी सावरकर बलात्कार जैसे घृणित कृत्य को भी हिंदुत्व स्थापित करने का महत्वपूर्ण हथियार मानते थे और उन्होंने शिवाजी की भी इस मामले में तीखी आलोचना की है कि उन्होंने अपने जीवन में मुस्लिम महिलाओं के साथ काफी उदारता बरती, जिसने भारत के एक हिन्दू राष्ट्र बनने की प्रक्रिया को बाधित किया। उनका स्पष्ट विचार था कि हिन्दू राजाओं को अपने विजित राज्य के मुसलमान राजाओं की पत्नियों तथा बहू-बेटियों और आम जनता में मुस्लिम महिलाओं से बलात्कार न करना एक चूक थी।

      आज हिंदू समुदाय को यह चूक नहीं करना चाहिए। संघ का यह जीवन दर्शन इस बात को स्पष्ट करता है कि भाजपा राज के 11 सालों में इस देश में बलात्कारों की संख्या में इतनी बढ़ोतरी और दोष सिद्धि की दर इतनी गिरावट कैसे हुई है और क्यों बलात्कारियों को इतने बड़े पैमाने पर राजनैतिक संरक्षण मिलता है?

      हिंदुत्व के दर्शन में समाहित इस नस्लीय और लैंगिक घृणा का एक ही जवाब है कि स्वाधीनता संग्राम में विकसित भाईचारे के मूल्यों को, हमारे संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मूल्यों की रक्षा के लिए और संघ भाजपा की नफरत और देशद्रोही राजनीति के खिलाफ एक विशाल नागरिक आंदोलन खड़ा करने की पुरजोर कोशिश की जाएं।

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