अखिलेश यादव के गृह प्रवेश और ब्राह्मणों के निष्कासन की घटना सिर्फ “सवर्ण बनाम पीडीए” नहीं, बल्कि “राजनीतिक वर्चस्व बनाम धार्मिक स्वतंत्रता” की नई बहस को जन्म दे रही है।
कुमार विजय
उत्तर प्रदेश की राजनीति एक बार फिर एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गई है, जहां धार्मिक कर्मकांड, जातीय पहचान और राजनीतिक विचारधारा की रेखाएं एक-दूसरे में घुलती-मिलती नहीं, बल्कि टकराती दिख रही हैं। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के आजमगढ़ जनपद में निर्मित नए आवास में हाल ही में संपन्न हुआ गृह प्रवेश – जो एक सामान्य वैदिक अनुष्ठान था – अब एक राजनीतिक प्रतीक बन गया है।
इस अनुष्ठान को संपन्न कराने वाले पांच ब्राह्मणों को ब्राह्मण महासभा द्वारा निष्कासित किए जाने की घटना ने न सिर्फ उत्तर प्रदेश में, बल्कि पूरे देश में धर्म और राजनीति के संबंधों पर बहस को तेज कर दिया है। यह कोई छोटी या अलग-थलग घटना नहीं है, बल्कि एक ऐसे आने वाले सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष का संकेत है, जो भारतीय लोकतंत्र की दिशा और समाज की सोच को गहराई से प्रभावित कर सकता है।
गृह प्रवेश की तस्वीरें और उठते सवाल
अखिलेश यादव द्वारा कराए गए इस गृह प्रवेश कार्यक्रम की तस्वीरें जब सार्वजनिक हुईं, तो उनमें उन्होंने पूरी श्रद्धा और विधिपूर्वक पूजा करवाई, साथ ही ब्राह्मणों को पूरा मान-सम्मान दिया। ये तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुईं, लेकिन आश्चर्य तब हुआ जब प्रयागराज की ब्राह्मण महासभा ने इन पुजारियों को “ब्राह्मण धर्म से निष्कासित” करार देते हुए उनके समाजिक बहिष्कार की घोषणा की।
तर्क यह दिया गया कि अखिलेश यादव ब्राह्मण विरोधी राजनीति करते हैं, उनकी पार्टी ‘सामाजिक न्याय की आड़ में’ ब्राह्मणों को हाशिये पर धकेलती है, इसलिए उनके लिए पूजा कराना “धार्मिक पवित्रता के विरुद्ध” है।
यह बयान और निर्णय जितना असामान्य था, उससे अधिक खतरनाक था इसका राजनीतिक और सामाजिक संदेश।
क्या अब ब्राह्मण भी ‘राजनीतिक जाति’ बन गए हैं?
ब्राह्मण भारत में हजारों वर्षों से पूजा-पाठ, कर्मकांड और वैदिक परंपराओं के मार्गदर्शक रहे हैं। उनका कार्य ‘यज्ञोपवित’ से लेकर ‘अंत्येष्टि’ तक हर जाति और वर्ग के लिए वैदिक प्रक्रिया संपन्न कराना है – बिना भेदभाव के। पर जब पूजा कराने के लिए किसी नेता की राजनीतिक विचारधारा को आधार बनाया जाए, तो प्रश्न उठता है कि क्या ब्राह्मण अब धार्मिक प्रतिनिधि नहीं रहे, बल्कि एक राजनीतिक पहचान बनते जा रहे हैं?
यदि ब्राह्मण केवल ‘भाजपा समर्थक’ समझे जाएं और समाजवादी पार्टी जैसे विपक्षी नेताओं के लिए पूजा कराने पर उन्हें दंडित किया जाए, तो यह स्वयं ब्राह्मण समाज की धार्मिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक गौरव का हनन है।
पीडीए: एक चुनौती या परिवर्तन की चेतना?
इस घटना को ठीक से समझने के लिए जरूरी है कि हम अखिलेश यादव की ‘पीडीए’ (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) राजनीति को गहराई से देखें।
यह अवधारणा 2022 विधानसभा चुनाव के बाद सामने आई जब अखिलेश यादव ने साफ कहा – “अब समाजवादी पार्टी पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों की राजनीतिक धुरी बनेगी।”
पीडीए दरअसल भाजपा की ‘सवर्ण समर्थन’ वाली राजनीति के मुकाबले एक प्रतिरोधी सामाजिक गठबंधन है, जो संख्या में अधिक, पर सत्ताशक्ति में हाशिए पर रहे तबकों को संगठित करता है।
इस मॉडल के अंतर्गत:यादव, कुर्मी, लोधी जैसे OBC वर्ग, जाटव, पासी, चमार जैसे SC वर्ग, मुस्लिम, ईसाई, सिख जैसे अल्पसंख्यक समुदाय को एकजुट किया गया है।
लेकिन अखिलेश यादव ने ब्राह्मणों को भी अपने मंचों पर बुलाना शुरू किया, उन्होंने ‘समाजवादी ब्राह्मण सम्मेलन’ कराए, और यह संदेश देने की कोशिश की कि पीडीए ब्राह्मण विरोधी नहीं है, बल्कि ब्राह्मण वर्चस्व की राजनीति के खिलाफ है।
ब्राह्मण महासभा का निर्णय: राजनीति का धार्मिक अधिग्रहण
ब्राह्मण महासभा द्वारा पुजारियों के निष्कासन का सीधा अर्थ है – यदि आप पीडीए की राजनीति से जुड़ेंगे, तो समाज से बाहर कर दिए जाएंगे।
यह न सिर्फ ब्राह्मण समाज के भीतर लोकतंत्र की हत्या है, बल्कि यह बताता है कि कट्टरपंथी ताकतें अब धर्म को भी अपनी राजनीति के लिए बंधक बनाना चाहती हैं।
यह उन ब्राह्मणों के लिए भी चेतावनी है जो राजनीतिक बहस से ऊपर उठकर समाज सेवा, आध्यात्मिकता और सामाजिक समरसता के पक्षधर हैं।
भविष्य की राजनीति में इस घटना की भूमिका
इस घटना का असर निकट भविष्य के उत्तर प्रदेश विधानसभा उपचुनाव, 2027 के चुनाव और 2029 के लोकसभा चुनाव तक जाएगा। यहां कुछ महत्वपूर्ण राजनीतिक संकेत दिए जा सकते हैं:
- पीडीए को मिलेगा नया नैतिक बल
अब अखिलेश यादव यह कहने की स्थिति में हैं कि पीडीए सिर्फ सामाजिक न्याय नहीं, बल्कि धार्मिक समावेशिता का भी प्रतीक है।
वे यह प्रचार कर सकते हैं कि “जब हमने ब्राह्मणों को पूजा में सम्मान दिया, तब हमें सांप्रदायिकता का आरोप झेलना पड़ा। यह संदेश उन ब्राह्मण मतदाताओं तक जाएगा जो भाजपा से नाराज़ हैं, लेकिन अब तक विकल्प नहीं देख पा रहे थे। - भाजपा को ब्राह्मण असंतोष से जूझना पड़ सकता है
ब्राह्मण समाज के एक हिस्से में यह भावना पहले से है कि भाजपा ने उन्हें सिर्फ ‘वोटबैंक’ की तरह इस्तेमाल किया है, न कि उन्हें सत्ता में बराबर भागीदारी दी।
यदि ब्राह्मण महासभा जैसी संस्थाएं खुलकर ‘बहिष्कार’ की भाषा बोलेंगी, तो समाज का एक उदार वर्ग उससे अलग भी हो सकता है।
- अल्पसंख्यकों में विश्वास मजबूत होगा
मुस्लिम और दलित वर्ग यह देखेगा कि समाजवादी पार्टी एक ऐसी विचारधारा बना रही है जो न केवल उन्हें प्रतिनिधित्व दे रही है, बल्कि ब्राह्मणों जैसे वर्चस्वशाली वर्ग को भी संविधान और धर्म के दायरे में रख रही है।
- राजनीति में नई ध्रुवीकरण रेखाएं बनेंगी
यह घटना सिर्फ “सवर्ण बनाम पीडीए” नहीं, बल्कि “राजनीतिक वर्चस्व बनाम धार्मिक स्वतंत्रता” की नई बहस को जन्म दे रही है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर डॉ. अजय सिंह कहते हैं: “ब्राह्मणों का बहिष्कार दरअसल यह साबित करता है कि सत्ता के निकटवर्ती वर्ग अब किसी भी सामाजिक मेल-जोल को अपनी शक्ति के लिए खतरा मानने लगे हैं। पीडीए राजनीति को यदि धार्मिक समर्थन भी मिलने लगेगा, तो यह सत्ता समीकरणों को उलट सकता है।”
युवा वर्ग और सामाजिक कार्यकर्ता इस घटना को ‘सोशल ऑटोनॉमी’ यानी सामाजिक स्वायत्तता की दृष्टि से देख रहे हैं।
ब्राह्मण युवा संगठन ‘युवा वेदांत परिषद’ के अध्यक्ष विवेक मिश्रा कहते हैं:
“यदि ब्राह्मण सिर्फ एक विचारधारा का गुलाम बन जाएगा, तो उसका ब्राह्मणत्व समाप्त हो जाएगा। जो ब्राह्मण ज्ञान, उदारता और निष्पक्षता के लिए जाना जाता है, वह अब बहिष्कार की भाषा बोल रहा है – यह हमारी परंपरा के खिलाफ है।”
क्या यह शुरुआत है एक वैचारिक क्रांति की?
ब्राह्मणों का यह निष्कासन एक घटना नहीं, बल्कि एक प्रक्रिया है। यह हमें बताता है कि भारत में सामाजिक न्याय की लड़ाई अब धार्मिक नैतिकता के क्षेत्र में भी प्रवेश कर चुकी है। अखिलेश यादव के गृह प्रवेश ने एक ऐसा विमर्श खोल दिया है जहां राजनीति, धर्म और जाति तीनों के बीच नई सीमाएं खींची जा रही हैं। भविष्य की राजनीति अब केवल ‘जातीय गणित’ नहीं रहेगी, वह अब धार्मिक स्वतंत्रता, समावेशिता और विचारधारा की स्वतंत्रता के मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमेगी। जहां एक ओर भाजपा की राजनीति अब भी धार्मिक भावनाओं को साधने में लगी है, वहीं अखिलेश यादव धर्म और सामाजिक न्याय को एक नई व्याख्या देने की कोशिश कर रहे हैं – जिसमें ब्राह्मण भी शामिल हैं और दलित भी।
यह भारत के लोकतंत्र की नई संभावनाओं की शुरुआत हो सकती है – बशर्ते समाज इसे नफरत से नहीं, समझदारी और समानता से देखे।


कुमार विजय साँचिया के मुख्य संपादक हैं। पिछले 23 साल से पत्रकारिता, सिनेमा एवं रंगमंच से सम्बद्ध रहे हैं।