गुलशन यादव को इनामी अपराधी घोषित किए जाने का फैसला प्रशासनिक कार्रवाई से ज़्यादा सत्ता और राजा भैया की साज़िश का नतीजा प्रतीत होता है, क्योंकि जिन परिस्थितियों में यह निर्णय लिया गया, वे साफ़ तौर पर लोकतंत्र में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को रास्ते से हटाने की परंपरा को दोहराते हैं। गुलशन यादव की पहचान क्षेत्र में एक ऐसे चेहरे की रही है जिसने ग़रीबों, युवाओं और वंचित वर्गों के सवालों को मजबूती से उठाया, लेकिन इसी वजह से उनकी बढ़ती लोकप्रियता सत्ताधारी ढाँचे के लिए असहज करने वाली हो गई।
यदि वास्तव में वे अपराधी हैं तो प्रशासन को सबूतों के साथ सामने आना चाहिए, लेकिन अब तक केवल राजनीतिक दबाव में लिए गए फैसले ही दिखाई देते हैं। इस पूरे घटनाक्रम में राजा भैया की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं, जिनका राजनीति में वजूद हमेशा सत्ता के समीकरणों पर टिका रहा है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि आने वाले चुनावों से पहले जनता में मज़बूत पकड़ बनाने वाले चेहरों को बदनाम करना ही इसका असली उद्देश्य है। दिलचस्प यह है कि यह मामला राजा भैया और अखिलेश यादव के छिपे टकराव को भी सामने लाता है, क्योंकि अखिलेश यादव की राजनीति सामाजिक न्याय और पिछड़ों की लामबंदी पर आधारित है जबकि राजा भैया का राजनीतिक वजूद परंपरागत वर्चस्व और सत्ता-समर्थित प्रभाव पर। ऐसे में गुलशन यादव को इनामी अपराधी घोषित करना केवल एक व्यक्ति पर कार्रवाई नहीं बल्कि उस सामाजिक न्याय की राजनीति पर प्रहार है जो अखिलेश के नेतृत्व में मज़बूत हो रही है।
भारतीय राजनीति का इतिहास बताता है कि जब-जब सामाजिक न्याय की ताक़तें उठ खड़ी हुई हैं, सत्ता ने उन्हें अपराधी या अराजक बताकर दबाने की कोशिश की है — चाहे बहुजन आंदोलन हो या पिछड़ों की आवाज़। गुलशन यादव प्रकरण उसी प्रवृत्ति का ताज़ा उदाहरण है जहाँ लोकतंत्र की आत्मा पर सवाल उठते हैं: क्या न्याय अब सत्ता की सुविधा से तय होगा और क्या जनता की आवाज़ उठाना ही अपराध मान लिया जाएगा। इस घटना ने स्पष्ट कर दिया है कि यह मामला केवल कानून-व्यवस्था का नहीं बल्कि सत्ता, सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच चल रहे संघर्ष का आईना है और यही कारण है कि इसे सामान्य कार्रवाई मानकर नज़रअंदाज़ करना न तो राजनीति के लिए संभव है और न ही समाज के लिए उचित।
गुलशन यादव को इनामी अपराधी घोषित किए जाने की घटना केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं है; यह हमारे लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की राजनीति पर एक गहरा प्रहार है। इसे समझने के लिए ज़रूरी है कि इसे व्यापक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए — जहाँ सत्ता का भय, राजा भैया की भूमिका और अखिलेश यादव बनाम राजा भैया का टकराव, सब एक-दूसरे से गुँथे हुए नज़र आते हैं।

गुलशन यादव का नाम अपराध से नहीं, बल्कि सामाजिक सरोकार और जनता के संघर्ष से जुड़ता है। वे हमेशा ग़रीब, पिछड़े और वंचित तबकों की आवाज़ को सामने लाते रहे हैं। उनकी बढ़ती लोकप्रियता, विशेषकर युवाओं और किसानों में, सत्ताधारी ढाँचे के लिए एक बड़ी चुनौती बन रही थी। यही वजह है कि उन्हें अपराधी ठहराकर रास्ते से हटाने की रणनीति अपनाई गई।
इस पूरे प्रकरण में राजा भैया का नाम महज़ इत्तफ़ाक़ नहीं है। राजा भैया हमेशा से सत्ता के साथ समीकरण साधते रहे हैं। इतिहास गवाह है कि जब भी उनकी राजनीतिक ज़मीन डगमगाने लगती है, तब वे अपने विरोधियों को दबाने और डराने के लिए सत्ता का इस्तेमाल करवाते हैं।
गुलशन यादव को इनामी घोषित करना भी उसी रणनीति का हिस्सा है। यह केवल एक व्यक्ति को “क़ानून-व्यवस्था” के नाम पर बदनाम करना नहीं, बल्कि जनता की आवाज़ को दबाने का प्रयास है।
इस मामले को अखिलेश यादव और राजा भैया के टकराव से अलग करके देखना कठिन है।
- अखिलेश यादव की राजनीति सामाजिक न्याय, पिछड़ों और युवाओं की मज़बूत लामबंदी पर टिकी है।
- राजा भैया, दूसरी ओर, सत्ता और सामंती ठाठ-बाट के प्रतीक हैं, जिनका राजनीति में वजूद भय और प्रभाव से चलता है।
गुलशन यादव को निशाना बनाना, दरअसल, उस जनाधार पर हमला है जिसे अखिलेश की राजनीति मज़बूत कर रही है। सत्ता और राजा भैया की इस साज़िश के पीछे साफ़ संकेत है कि आने वाले चुनावों में सामाजिक न्याय की राजनीति को कमजोर कर दिया जाए, ताकि राजा भैया का परंपरागत वर्चस्व और सत्ताधारी गठजोड़ की पकड़ बनी रहे।
जब किसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी या सामाजिक न्याय के पैरोकार को इनामी अपराधी घोषित कर दिया जाता है, तो यह केवल व्यक्ति पर नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर हमला है। यह सवाल उठाता है:
- क्या न्यायालय और क़ानून से ऊपर सत्ता की मर्ज़ी चलने लगी है?
- क्या जनता के सवाल उठाने वाले हमेशा अपराधी ठहराए जाएंगे?
- क्या लोकतंत्र अब केवल सत्ता की सुरक्षा का औज़ार बनकर रह जाएगा?
भारतीय राजनीति का इतिहास गवाह है कि जब भी सामाजिक न्याय की ताक़तें मज़बूत हुई हैं, सत्ता ने उन्हें अपराधी, अराजक या ग़ैर-क़ानूनी ठहराने की कोशिश की है। चाहे वह कांशीराम और बहुजन आंदोलन हो, या पिछड़े वर्गों की राजनीति; हर बार सत्ता ने अपनी पकड़ बचाने के लिए “क़ानून-व्यवस्था” का खेल खेला है। गुलशन यादव के साथ भी वही खेल दोहराया जा रहा है।
गुलशन यादव प्रकरण कोई साधारण घटना नहीं है। यह सत्ता और सामाजिक न्याय की राजनीति के बीच संघर्ष की ज्वलंत मिसाल है। इसमें राजा भैया और सत्ता का गठजोड़ साफ़ दिखता है, वहीं अखिलेश यादव के बढ़ते प्रभाव और सामाजिक न्याय की राजनीति से उपजा भय भी छिपा नहीं है।
यह मामला हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम उस दौर में पहुँच चुके हैं जहाँ सत्ता विरोधियों को अपराधी घोषित करना लोकतंत्र का नया नियम बन गया है? और अगर ऐसा है, तो सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए संघर्ष और भी कठिन, लेकिन और भी ज़रूरी हो गया है।

कुमार विजय साँचिया के मुख्य संपादक हैं। पिछले 23 साल से पत्रकारिता, सिनेमा एवं रंगमंच से सम्बद्ध रहे हैं।

