क्या आप दिलो-दिमाग से स्वतंत्र होने का वजूद महसूस करते हैं ..?

हस्तक्षेप

स्वतंत्रता के 78 साल पूरा होने पर देश के सभी भारतवासियों को इस शुभ अवसर पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाए, लेकिन अफसोस के साथ। इन 78 सालों में देश की प्रगति और परिस्थितियों को देखते हुए स्वतंत्रता से पहले और बाद की परिस्थितियों पर संक्षेप में प्रकाश डालना उचित समझता हूं।

भारत की आधे से ज्यादा बाउंड्री समुंद्री संपदा से युक्त, उत्तर में हिमालय की बर्फ की चादरों से घिरे होने और उनके पिघलने के कारण पूरे साल भर नदियों की सहायता से पीने के पानी की अनवरत सुविधा, मानव जीवन के लिए उपयोगी सभी तरह के मौसम से परिपूर्ण, मानव जीवन की जरूरत की वस्तुओं के उत्पादन के लिए सभी तरह की मिट्टी, मौसम और जलवायु से ओत-प्रोत है। यही नहीं सभी तरह के खनिज संपदा से परिपूर्ण हमारा भारत देश है। भारत में ही उत्तर में यूरोप जैसा बर्फीला, तो दक्षिण में अफ्रीका, पश्चिम में अरब, तो पूरब में चाइना जैसा माहौल है। क्या नहीं है? देखा जाए तो पूरे विश्व की झलक यहां मिलती है! यही कारण था कि पांचवीं शताब्दी के आसपास या उसके पहले से ही इन्सान, खानाबदोश या घुमक्कड़ प्रवृत्ति के होने के कारण, जो भी यहां आया उसे पसंद आया और यहीं का होकर रह गया।

प्यार से या छल कपट से या हमारी मूर्खता, धूर्तता, मक्कारी, छुआछूत, असमानता, अहंकार और स्वार्थ के कारण आपस में लड़ते रहने से, विदेशी हमलावरों ने यहां के राजाओं को हराकर पूरे भारत को गुलाम बनाया। अंत में हमलोग अंग्रेजी हुकूमत के गुलाम हो गये।

आज हम रूप से स्वतंत्र तो है, लेकिन क्या आप दिलो-दिमाग से स्वतंत्र होने का वजूद महसूस करते हैं ? क्या आप को अपने विचार रखने की आजादी है? हर आदमी डरा हुआ है। पति, काम पर गया है, पत्नी को पति की सुरक्षित घर वापस लौटने की चिंता के साथ-साथ, खुद, डरी-सहमी घर में कैद बैठी हुई है। पति हिदायत देते हुए बाहर गया हुआ है, सेफ्टी डोर से पहचानने के बाद ही इंसान के लिए दरवाजा खोलना। हमें याद है हम लोग गांव में बचपन में, सिर्फ जानवर से ही डरते थे। इन्सान से डरने का तो कभी सवाल ही नहीं उठता था। बच्चा स्कूल गया है, लौटते समय तक डर बना हुआ है। यदि 10- 12 साल की लड़की है तो हर समय उसके मान-सम्मान के साथ घर वापस लौटने तक डर बना हुआ है।

आप के बैंक खाते से एटीएम से कहीं, कोई पैसे निकाल न ले। अब तो बैंकों के डूबने की भी चिंता बनी हुई है। यदि आप सफर में है तो, घर वालों को हर समय डर बना हुआ है, सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुंचने की चिंता। पूरे रास्ते में समान की सुरक्षा के साथ-साथ, हिंदू-मुस्लिम के साथ साथ, जाति-पाति के पहचान की चर्चा न हो जाय। हर कदम पर इंसान को इंसान से ही डर का माहौल बना हुआ है, तो फिर कैसी स्वतंत्रता? क्या स्वतंत्र होने का वजूद हमारे जेहन में है? आखिर स्वतंत्रता के 78 सालों बाद भी ऐसा माहौल क्यों है? और इसके लिए कौन जिम्मेदार है?

सच तो यह है कि, यहां के लोगों की अमानवीय मानसिकता, मानव मानव में छुआछूत जैसे भेदभाव, कुछ लोगों की जानवर से भी बद्दतर हालात को देखते हुए, अंग्रेजों ने यहां से कभी वापस लौटने का सोचा ही नहीं था। इसीलिए पहले यहां के लोगों को, कुछ लोगों के विरोध के बावजूद भी, शिक्षा के माध्यम से कुछ अभागे लोगों को इंसान बनाने की कोशिश में लग गए। भारत को प्रगतिशील बनाने के लिए, विदेशों से व्यापार के लिए बड़े बड़े बंदरगाह बनाए। सभी बड़े शहरों को रेलवे का जाल बिछाकर यातायात और व्यापार को सुगम बना दिया।

जीवनोपयोगी उत्पादन के लिए, बड़े-बड़े कई कल- कारखाने, बड़े-बड़े आलीशान भवन, रेलवे स्टेशन, अस्पताल, कालेज, विश्वविद्यालय आदि तथा कई दर्शनीय भव्य इमारत बनाकर, कर्तव्य व देश के प्रति अपनी निष्ठा, देशभक्ति और ईमानदारी की मिसाल कायम किए। आज की दयनीय स्थिति, जैसे बड़ी बड़ी पुलिया, रोड, बिल्डिंग बनने के कुछ समय बाद ही गिरने लगती है या जर्जर हो जाती है। देश की सम्पत्ति भ्रष्टाचार की बलि चढ जाती है। इसको देखते हुए, उनकी कामयाबी को उदाहरण के रूप में पेश करते रहते हैं।

अभी भारतीयों को मानवीय इंसान बनाने की प्रक्रिया चालू ही थी कि, पूरे विश्व में उपनिवेशवाद और वर्चस्व को लेकर उथल-पुथल मच गई। परिणाम स्वरूप पहला विश्व युद्ध लम्बा चला, फिर दूसरा विश्व युद्ध जो 1945 तक चला। जिसमें अंग्रेजों को बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। जिससे वे अपना घर संभालने में ही असफल होने लगे। इस तरह सभी उपनिवेशीय देशों पर प्रशासनिक पकड़ ढीली पड़ने लगी। सभी तरफ अराजकता का माहौल बनने लगा। ऐसे हालात में सभी दिशाओं से स्वतंत्रता की आवाज तेज होने लगी। भारत में भी गांधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता के लिए जन आंदोलन शुरू हो गया। फिर अंग्रेजी हुकूमत मजबूर होकर सभी को स्वतंत्र करने और अपने घर वापस लौटने का मन बना लिया। इस तरह सभी गुलाम देशों के साथ-साथ भारत भी स्वतंत्र हो गया।

काश! स्वतंत्रता पाने के लिए हर परिवार से 1-2 शहीद हुए होते, तब हमें सही देशभक्ति व स्वतंत्रता की कीमत का एहसास होता। अफसोस ऐसा नहीं हुआ और आज देश पर्सनल स्वार्थ और लालच में गुलामी से भी बदतर हालात की तरफ जा रहा है। आखिर कौन और क्यों ले जा रहा है? आज के वैज्ञानिक युग में हमें आठवीं शताब्दी की ओर, पीछे की तरफ, क्यों धकेला जा रहा है? यह सोच और मंथन करने का विषय है।

कल्पना कीजिए कि 100-150 साल पहले पश्चिमी सभ्यता के इन्सानों की सोच और उनके अन्दर छटपटाहट ऐसी थी कि अंधे और बहरों को भी शिक्षा मिलनी चाहिए, उनके लिए भी नयी भाषा और तकनीक का आविष्कार कर दिया। ठीक उसके विपरीत हमारी सनातनी सभ्यता अपने ही अच्छे, तगड़े, मजबूत भाईयों को आज के युग में शिक्षा से वंचित कर रही है। क्या ऐसे लोगों में इन्सानियत और मानवता की थोड़ी सी भी झलक दिखाई देती है? फिर भी हम नासमझ, मानसिक गुलाम शूद्र , ऐसे नींच मानसिकता वालों को उच्च और अपने आप को नींच समझते हैं।

बाबासाहेब अंग्रजों की गुलामी से पहले ब्राह्मणवाद की गुलामी से मुक्त होना चाहते थे। जब तक शूद्र समाज ब्राह्मणवाद की मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं होगा, तब तक इस स्वतंत्रता के कोई मायने नहीं है। यह भारत देश आप का अपना देश है। आप यहां के मूल निवासी है। आप में पैदाइशी कर्म करने की प्रवृत्ति, देशभक्ति, निष्ठा और ईमानदारी कूट कूट कर भरी हुई है। इसकी समृद्धि, सफलता और उज्जवल भविष्य आप पर निर्भर है। एक बात और आप को बता देना चाहता हूँ कि, देश स्वतंत्र है, लेकिन आज भी हमारा शूद्र समाज मानसिक रूप से ब्राह्मणवाद की गुलामी में पूरी तरह से जकड़ा हुआ है।

15अगस्त 1947 को अंग्रेजों से मुक्त होने के बाद, बाबा साहेब ने 26 जनवरी 1950 को संविधान लिखते समय अपने मूल अवधारणा के अनुरूप ब्राह्मणवाद से मुक्ति के लिए संविधान में अनुच्छेद 51AH का प्रावधान किया है। यह आर्टिकल कहता है कि, भारत के हर नागरिक के अंदर वैज्ञानिक सोच पैदा करने की प्रवृत्ति पैदा करना है, (मतलब ब्राह्मणवाद से मुक्ति)। लेकिन पूरे देश में शासन प्रशासन द्वारा ही संविधान की अवहेलना करते हुए, ठीक इसके उल्टा काम किया जा रहा है। इसलिए, हमें और आप को इस ब्राह्मणवादी मानसिक गुलामी से भी मुक्त होने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए।

भारतीय समाज की संरचना में असमानता, भेदभाव और जातिगत विभाजन जैसी चुनौतियाँ सदियों से मौजूद रही हैं। ऐसे में, कुछ व्यक्तित्व अपने जीवन को इन कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष और सामाजिक चेतना के उत्थान के लिए समर्पित कर देते हैं। शूद्र शिवशंकर सिंह यादव जी उन्हीं अद्वितीय हस्तियों में से एक हैं, जिन्होंने न केवल सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई, बल्कि अपने विचारों, लेखन और जीवनशैली के माध्यम से करोड़ों वंचितों को आत्मसम्मान का संदेश दिया।

1 फ़रवरी 1951 को उत्तर प्रदेश के चंदौली ज़िले में जन्मे शिवशंकर सिंह यादव जी का बचपन एक साधारण ग्रामीण वातावरण में बीता। पारिवारिक संस्कारों और शिक्षा ने उनके व्यक्तित्व को सादगी, मेहनत और ईमानदारी की नींव पर खड़ा किया। उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद टेलीफोन विभाग में काम किया और मंडल अभियंता के पद से सेवानिवृत्त हुए। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने सरकारी सेवा में प्रवेश किया और टेलीफोन विभाग में कार्य करते हुए मंडल अभियंता के पद तक पहुँचे। नौकरी के दौरान ही उनका रुझान सामाजिक कार्यों की ओर बढ़ा और धीरे-धीरे उन्होंने अपने जीवन का केंद्र बिंदु समाज सेवा को बना लिया।

वह जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद की आलोचना के लिए प्रसिद्ध हैं, और वह शूद्र समुदाय (जिसे शोषित वर्ग भी कहा जाता है) के सशक्तिकरण की वकालत करते हैं। उन्होंने विभिन्न पुस्तकों और सार्वजनिक चर्चाओं के माध्यम से अपने विचार व्यक्त किए हैं, और तर्क दिया है कि शूद्र समुदाय को सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तन प्राप्त करने के लिए एकजुट होना चाहिए और अम्बेडकरवादी विचारधारा को अपनाना चाहिए।

उनकी प्रमुख उपलब्धियां:

  • सामाजिक कार्य: शूद्र शिवशंकर सिंह यादव जी ने अपने कार्यकाल में सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लिया। उन्होंने 1982 से मान्यवर कांशीराम जी के साथ बामसेफ में काम किया और सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रयासरत रहे।
  • साहित्यिक योगदान: उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं ¹:
  • “मनवीय चेतना”
  • “गर्व से कहो हम शूद्र हैं”
  • “ब्राह्मणवाद का विकल्प शूद्रवाद”
  • “यादगार लम्हे”
  • पुरस्कार और सम्मान: उन्हें उनके उत्कृष्ट कार्य के लिए भारत सरकार से संचार श्री अवार्ड से सम्मानित किया गया है।
  • मिशन गर्व से कहो हम शूद्र हैं: उन्होंने इस मिशन की शुरुआत की और इसके सफल संचालन के लिए उन्होंने अपना नाम शिवशंकर रामकमल सिंह से बदलकर शूद्र शिवशंकर सिंह यादव रख लिया।
  • पारंपरिक हिंदू मान्यताओं की आलोचना: शिवशंकर यादव ने खुले तौर पर हिंदू धर्मग्रंथों की पारंपरिक व्याख्याओं को चुनौती दी है, विशेष रूप से कृष्ण के ऐतिहासिक अस्तित्व और भगवद गीता की शिक्षाओं पर सवाल उठाया है।
  • वैज्ञानिक विचार और सामाजिक सुधार की वकालत: वह समाज में वैज्ञानिक विचार को बढ़ावा देने और सामाजिक बुराइयों, अंधविश्वास और पाखंड के खिलाफ लड़ने के महत्व पर जोर देते हैं।
  • शूद्र समुदाय का सशक्तिकरण: शिवशंकर यादव का मानना है कि शूद्र समुदाय, जिसे अक्सर निम्न सामाजिक दर्जा माना जाता है, को अपनी खोई हुई गरिमा और आत्म-सम्मान को पुनः प्राप्त करने की आवश्यकता है।
  • ब्राह्मणवाद की अस्वीकृति और अम्बेडकरवादी विचारधारा का प्रचार: वह शूद्र समुदाय को एकजुट होने और ब्राह्मणवाद का सामना करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, और सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए अम्बेडकरवाद के सिद्धांतों को अपनाने की वकालत करते हैं।

प्रमुख पुस्तकें –

मनवीय चेतना – मानवता और समानता का दार्शनिक दृष्टिकोण।

गर्व से कहो हम शूद्र हैं – शूद्र समाज के इतिहास और गौरव का घोष।

ब्राह्मणवाद का विकल्प शूद्रवाद – सामाजिक असमानता पर गहन विश्लेषण और समाधान।

यादगार लम्हे – जीवन के संस्मरण और प्रेरक प्रसंग।

नायगांव (वसई, महाराष्ट्र) में निवास करते हुए भी वे पूरी ऊर्जा के साथ सामाजिक आंदोलनों, लेखन और जनजागरण में सक्रिय हैं। उनकी पुस्तकें अमेज़न और फ्लिपकार्ट जैसे मंचों पर उपलब्ध हैं, और अनेक युवा उनके विचारों से प्रेरणा लेकर समाज परिवर्तन की राह पर चल रहे हैं।

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