कॉलेजऔर विश्वविद्यालयों की विद्रूपताओं का प्रतिबिंब है नाटक ‘कैंपस’

रंगमंच

कैंपस नाटक की कथा शिक्षा के केंद्र में शिक्षा के साथ चल रही उन तमाम गतिविधियों को भी दर्शाती है जो पॉजिटिव और निगेटिव दोनों हैं । विश्वविद्यालय का कैंपस युवाओं के जीवन का वह पड़ाव होता है जहां से वह अपना भविष्य तय करता है । कोई अपने लिए रोजगार का चुनाव करता है, तो कोई राजनीति को अपना कैरियर चुनता है, कोई समाज के प्रदूषण को साफ करना चाहता है, कुछ लक्ष्य विहीन होते हैं जो जैसा परिवेश मिला उसी में ढल जाते हैं और बादलों की तरह हवा के झोंके में विचरते रहते हैं कुछ फट पड़ते हैं तो तबाही लाते हैं कुछ बरसे तो समृद्धि । युवाओं के निर्माण में कॉलेज और विश्वविद्यालय का महत्वपूर्ण योगदान होता है । उसका प्रशासन जिम्मेदार होता है । उसे पॉजिटिव परिवेश निर्मित करना होता है यदि कुछ गड़बड़ी की तो उसका असर इन युवाओं पर पड़ता है।

हमारा समाज है, हमारी सामाजिक व्यवस्था है जो हमारी मानसिकता तय करती है । इसी समाज से हम सभी आते हैं छात्र, प्रोफेसर व विश्वविद्यालय प्रशासन जिनसे कैंपस का पूरा परिवेश बनता और हम सभी कहीं न कहीं किसी न किसी रूप से इस सामाजिक व्यवस्था से प्रभावित हैं । यही प्रभाव इन विश्वविद्यालयों में भी दिखता है।

     इस कैंपस नाटक में प्यार है,  नफ़रत है, जातीय भेद भाव की विषाक्तता है, उद्दंडता, लड़कियों के साथ छेड़ -छाड़,अपराध, बमबाजी, राजनीतिक महत्वाकांक्षा है जिसके लिए किसी की हत्या तक करनी पड़े तो उसके लिए कोई गुरेज नहीं है, छात्रों की समस्याएं, हॉस्टल की समस्याएं, फ़ीस वृद्धि, मारपीट हैं तो कुछ समाज को दुरुस्त रखने की इच्छा वाले भी है, शिक्षा प्राप्त करके अच्छे भविष्य निर्माण की इच्छा वाले भी हैं।

   कथा काल्पनिक है लेकिन यथार्थता का प्रतिबिंब है । कॉलेज और विश्वविद्यालयों के लिए दर्पण है यह नाटक ।

     नाटक की शुरुआत छात्रों की दैनिक गतिविधि से होती है। दो युवा छात्र हैं एक सविता प्रजापति बी. ए. की छात्रा दूसरा अभय त्रिपाठी एम. ए. का छात्र । दोनों में प्यार है। दोनों एक दूसरे को प्रेरित करते हैं। अभय का लक्ष्य है नौकरी करना लेकिन मुख्य लक्ष्य आई.ए.एस. –  पी. सी. एस. बनना, वह प्रयास करता है और नाटक जहां समाप्त होता है वह मुख्य लक्ष्य प्राप्त कर चुका होता है । दोनों अपनी – अपनी क्लास करते हैं और मिलते रहते हैं। लेकिन उन्हें विश्वविद्यालय की गतिविधियों से संघर्ष करना पड़ता है। मारपीट, गाली गलौज, छेड़ छाड़। संघर्ष इन्हीं दोनों का ही नहीं है सभी छात्रों का है जो संघर्ष कर रहे हैं इसीलिए तो सालों से बंद पड़े छात्र – संघ के चुनाव को बहाली की मांग कर रहे हैं ताकि छात्र सामूहिक रूप से अपने हित की लड़ाई लड़ सकें। संघर्ष प्रोफेसरों का भी है अपने आत्मसम्मान का। यदि कोई दलित प्रोफ़ेसर यूनिवर्सिटी में है तो अपने को उच्च जाति का समझने वाले छात्रों को ये बर्दाश्त नहीं होता उन्हें अपमानित करने का अवसर नहीं छोड़ते। इस नाटक में मान्यवर कांशीराम के संघर्ष पर कोई चर्चा नहीं है लेकिन उनके संघर्ष का ही प्रभाव है कि आज विश्वविद्यालयों में दलित प्रोफेसर भी हैं। लेकिन उन्हें ये उच्च जातियां बर्दाश्त नहीं करना चाहतीं।

   क्लास चल रही है कुछ उद्दंड छात्र दलित प्रोफेसर को जाति के नाम पे अपमानित करते हैं, वही छात्र सविता व अन्य लड़कियों  से छेड़ छाड़ करते है और बार – बार करते हैं। छात्रों की सामूहिक समस्याएं जैसे हॉस्टल, फ़ीस वृद्धि, क्लास सुचारू रूप से न चलने की, प्रशासन की तानाशाही रवैया आदि हैं जिनसे वे दो चार हो रहे हैं।

छात्र –  संघ बहाली की मांग जब मान ली जाती है तो चुनाव के नामांकन की बात आती है। यहां दो ग्रुप मज़बूत हैं जिनमें कड़े मुकाबले हैं, एक रूद्र प्रताप सिंह उर्फ़ बंटी भैया का दूसरा अनिता चौहान का। बंटी भैया चाहता है कि अनिता चौहान नामांकन न करे जिससे वह आसानी से चुनाव जीत जाय। वो साम, दाम, दंड, भेद सारे तरीके आज़माता है पर अनीता चौहान अपने फैसले पर अड़ी रहती है । बंटी भैया राजनैतिक पार्टी से पैसा ले चुका है वह किसी भी तरीके से चुनाव जीतना चाहता है। अंत में वह भरी सभा में अनिता चौहान को गोली मार देता है । और वहाँ से ऐसे टहलते हुए निकल जाता है जैसे उसे किसी का डर नहीं है । सविता प्रजापति जो राजनीति से दूर इसलिए रहना चाहती है कि यह पढ़ाई में बाधा है लेकिन उसे तब इसका महत्व समझ में आता है जब उसके साथ छेड़ छाड़ होती है। वह देखती प्रोफेसर के साथ दुर्व्यवहार होता है, प्रोफेसर क्लास नहीं ले रहे हैं छात्रों की तमाम समस्याएं हैं जो उनकी पढ़ाई में बाधा उत्पन्न कर रही हैं। चुनाव में भाग लेती है और अध्यक्ष के लिए चुनी जाती है।

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वह संकल्प लेती है इन समस्याओं को दूर करेगी। किसी की भी मनमानी नहीं चलने देगी चाहे विश्वविद्यालय प्रशासन हो छात्र हो या फिर प्रोफ़ेसर ही क्यों न हों सबको अपनी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।

 नाटक का निर्देशन नाटककार विनोद सरोज जी ने स्वयं किया। उन्होंने नाटक की व्याख्या बखूबी की है। पुअर रंगमंच के रूप में मंच विन्यास किया जो आभासी था चूंकि पैसे का आभाव ऐसा करने को मजबूर करता है । प्रकाश विन्यास भी साधारण लेकिन सधा हआ । संगीत समय बद्ध था। कलाकार अपने अपने किरदार में उपयुक्त नजर आए। यह दूसरी प्रस्तुति थी इसलिए पहली प्रस्तुति की अपेक्षा कुछ सुधार के साथ था। पहली प्रस्तुति के कुछ कलाकार अनुपस्थित थे जिनका स्थानापन्न कुछ नए चेहरे से किया गया लेकिन अनुपस्थिति याद आई। फिर भी निर्देशन अत्यधिक सूझबूझ का था। गंभीर और हास्य का मिश्रण मन को तरंगित करता रहा।

  नाटक की यह दूसरी प्रस्तुति थी। जिसे Ensemble T.I.E., SRPA & PRATIBIMB के बैनर तले संयुक्त तत्वावधान में वेदा ब्लैक बॉक्स आराम नगर अंधेरी वेस्ट, मुंबई में किया गया। प्रथम प्रस्तुति PRATIBIMB & VISION TRUST बैनर तले संयुक्त तत्वावधान में मां स्टूडियो,196 आराम नगर पार्ट-2 अंधेरी वेस्ट, मुंबई में की गई थी।

मंच पर – वंशिका सिन्हा, राहुल सिंह राजपूत, विनीत यादव, काजल राजपूत, योगेंद्र यादव, सौरभ शुक्ला, मुलाम सिंह राजपूत, रोहित शर्मा, चंदन कुशवाहा, अमृता अमल, मोहम्मद साबिर, मीनू भगत, याकूब, अनुराग यादव, साजिद अब्बासी एवं विनोद सरोज।

मंच परे – प्रकाश संचालन अमित रहंगडाले, संगीत संचालन विनोद यादव, रिहर्सल इंचार्ज उज्ज्वल सिन्हा, वीडियोग्राफी डॉ. भगवत प्रसाद और समीर राज खान,  फोटोग्राफी अथर्व की।

समीक्षक

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