Hindutva communal mentality versus democratic and secular forces.

हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक मानसिकता बनाम जनतांत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष ताकतें

राष्ट्रीय हस्तक्षेप

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम, देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी है। स्वाभाविक रूप से उसकी 24वीं राष्ट्रीय कांग्रेस ने देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है। यह राष्ट्रीय कांग्रेस 2 से 6 अप्रैल तक, तमिलनाडु में मदुरै शहर में संपन्न हुई। कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कांग्रेस, पार्टी का सर्वोच्च निकाय होती है। पार्टी कांग्रेस के माध्यम से ही, कम्युनिस्ट पार्टी अपनी राजनीतिक-कार्यनीतिक-सांगठनिक रीत-नीति और दिशा तय करती है, जिसका अगली पार्टी कांग्रेस तक की अवधि में पार्टी को अनुसरण करना होता है। और इस रीति-नीति तथा दिशा के निर्णय की प्रक्रिया में कम्युनिस्ट पार्टी, अपनी कतारों की व्यापक से व्यापक हिस्सेदारी सुनिश्चित करती है। यह दो स्तरों पर किया जाता है। पहला, पार्टी कांग्रेस की तैयारियों के हिस्से के तौर पर, सबसे निचले स्तर पर पार्टी इकाईयों से होते हुए, उत्तरोत्तर विभिन्न स्तरों की समितियों से होते हुए, राज्य समितियों के स्तर तक, निचले स्तर से चुनकर आए प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी के साथ सम्मेलनों के जरिए। इन सम्मेलनों के माध्यम से हरेक स्तर के काम-काज की आत्मलोचनात्मक समीक्षा की जाती है और आने वाले सम्मेलन तक के लिए दिशा तय की जाती है तथा नेतृत्व का चुनाव किया जाता है। इसी प्रक्रिया में राज्य सम्मेलनों में चुने गए प्रतिनिधि ही, पार्टी की समूची सदस्य संख्या के प्रतिनिधियों के रूप में, राष्ट्रीय कांग्रेस में हिस्सा लेते हैं और तमाम निर्णय लेते हैं।

देश की प्राय: सभी प्रमुख भाषाओं में राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे का अनुवाद कर, उसे आम पार्टी सदस्यों को उपलब्ध कराया जाता है और पार्टी सदस्यों को इस पर चर्चा करने और अपने संशोधन प्रस्ताव व सुझाव भेजने के लिए प्रोत्साहित-प्रेरित किया जाता है। इसी का नतीजा है कि इस प्रक्रिया में सैकड़ों नहीं, हजारों की संख्या में संशोधन के प्रस्ताव व सुझाव, पार्टी के नेतृत्वकारी निकायों तक पहुंचते हैं। सीपीएम की 24वीं कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे में भी, चार हजार से जरा से कम संशोधन के प्रस्ताव आए थे।

पार्टी की कतारों से आए इन संशोधन प्रस्तावों/ सुझावों की रौशनी में, जो पार्टी की कतारों के अनुभवों व विचारों को विचार की समग्र प्रक्रिया में शामिल करते हैं, कांग्रेस के लिए राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे को अंतिम रूप दिया जाता है। राजनीतिक प्रस्ताव का इस तरह संशोधित मसौदा ही, पार्टी कांग्रेस के लिए देश भर से निर्वाचित होकर आए प्रतिनिधियों के सामने पेश किया जाता है। पुन: इन प्रतिनिधियों के बीच बेबाक बहस के बाद और इस पार्टी कांग्रेस के दौरान इन प्रतिनिधियों द्वारा रखे गए संशोधन प्रस्तावों पर विचार किए जाने और संशोधनों के इस अंतिम चक्र के बाद, जनतांत्रिक तरीके से प्रतिनिधिगण मसौदे पर अंतिम रूप से अपनी राय देते हैं और इसे मसौदे को राजनीतिक प्रस्ताव के रूप में तब्दील करते हुए, अगली कांग्रेस तक के लिए पार्टी के दिशासूचक के रूप में अंगीकार करते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि एक राजनीतिक पार्टी की रीति-नीति तय करने में यह विशद जनतांत्रिकता, कम्युनिस्ट पार्टी की ही अनोखी विशेषता है। पूंजीवादी पार्टियों में, जनतंत्र की निष्ठा की सारी बतकही के बावजूद, ऐसी गहरी वैचारिक जनतांत्रिकता की कोई गुंजाइश ही नहीं होती है।

कम्युनिस्ट पार्टी अपनी अंदरूनी रचना में जनतांत्रिकता पर इतना जोर, इसलिए देती है कि अन्य पार्टियों से गुणात्मक रूप से भिन्न कम्युनिस्ट पार्टी के लिए, वैचारिक एकता ही उसे बांधकर रखने वाला सीमेंट होती है। उद्येश्यों, आदर्शों और रीति-नीति की एकता ही, कम्युनिस्ट पार्टी की प्रहार शक्ति का असली आधार होती है। और हरेक पार्टी कांग्रेस के गिर्द चलायी जाने वाली वैचारिक एकीकरण की यह विशद प्रक्रिया, एक निश्चित अवधि पर, पार्टी की कतारों की इस वैचारिक एकता का नवीकरण करने का काम करती है। इसी सिलसिले में, सीपीएम की 24वीं कांग्रेस का सर्वसम्मति से राजनीतिक प्रस्ताव को स्वीकार करना, वर्तमान हालात की समझ और इन हालात के बीच से मजदूर वर्ग के आंदोलन को आगे ले जाने के लिए आवश्यक राजनैतिक कार्यनीति पर, पार्टी में व्यापक एकता को प्रतिबिंबित कर रहा था।

वास्तव में यह एकता सिर्फ सीपीएम की अपनी कतारों तक ही सीमित नहीं थी। इस पार्टी कांग्रेस के उद्घाटन सत्र में हिस्सा लेते हुए, देश की चार अन्य प्रमुख वामपंथी पार्टियों के शीर्ष नेताओं ने भी, व्यवहारत: इसी राजनैतिक-कार्यनीति पर अपनी सहमति जतायी थी। इनमें सीपीआई, सीपीआई (एमएल)-लिबरेशन, आरएसपी और फॉरवर्ड ब्लाक के महासचिव शामिल थे, जिन्होंने सीपीएम की कांग्रेस के लिए शुभकामना संदेश देते हुए, आज की मुख्य चुनौतियों तथा उनका मुकाबला करने के लिए कार्यनीति की समझदारी की इस एकता को, रेखांकित किया था।

इसके लिए, जहां तक संभव हो, चुनाव में धर्मनिरपेक्ष तथा जनतांत्रिक शक्तियों के वोट का एकजुट किया जाना आवश्यक है। यहां तक तो तमाम वामपंथी ताकतें ही नहीं, उनके साथ ही अधिकांश धर्मनिरपेक्ष ताकतें भी एकजुट हैं। इसी एकता की अभिव्यक्ति, पिछले साल आम चुनाव के समय कायम हुए इंडिया गठबंधन में हो रही थी, जिसने सत्ताधारी गठजोड़-विरोधी वोटों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी और संघ-भाजपा के मंसूबों को, उन्हें साधारण बहुमत से नीचे रोककर, एक हद तक विफल भी किया था।

यह लड़ाई कोई पिछले आम चुनाव के साथ खत्म नहीं हो गयी है। सिर्फ वामपंथ ही नहीं, तमाम जनतांत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष ताकतें भी इस पर एकजुट नजर आती हैं कि आम चुनाव में लगे धक्के के बावजूद, मोदी के नेतृत्व में सत्ताधारी हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता और कारपोरेटों का गठजोड़ उसी जनतंत्रविरोधी तानाशाहीपूर्ण, सांप्रदायिक मनुवादी, संघवादविरोधी रास्ते पर चल रहा है। इसलिए, उसके खिलाफ तमाम जनतांत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष ताकतों की एकता, आज भी वक्त की उतनी ही बड़ी जरूरत है।

बहरहाल, वामपंथी ताकतें विशेष रूप से इसके प्रति जागरूक हैं कि हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता और कारपोरेट के गठजोड़ को, जिसका प्रतिनिधित्व आज मोदी निजाम करता है, सिर्फ चुनाव के माध्यम से नहीं हराया जा सकता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि इस गठजोड़ की जनविरोधी नीतियों से तबाह हो रही मेहनतकश गरीब जनता के ही विशाल हिस्से, उसके हिंदुत्ववादी पैंतरों में आ जाते हैं और इस तरह कारपोरेटों के हाथों अपनी तबाही का सामान खुद ही मुहैया कराने लगते हैं। इसलिए, यह और भी जरूरी हो जाता है कि मेहनतकशों को उनके, रोजी-रोटी तथा न्यूनतम अधिकारों के लिए बढ़ते हुए संघर्षों के लिए गोलबंद करने के जरिए, मौजूदा निजाम की नीतियों तथा करतूतों को चुनौती दी जाए और इस सत्ताधारी गठजोड़ के जन-समर्थन में सेंध लगायी जाए। यह दूसरी बात है कि कम्युनिस्ट इस संबंध में भी काफी सचेत हैं कि हिंदुत्व की राजनीति को, सिर्फ रोजी-रोटी के संघर्षों के लिए मेहनतकशों को गोलबंद करने के प्रयासों के जरिए ही नहीं रोका जा सकता है, बल्कि इसके साथ ही साथ, मेहनतकश गरीबों को विचारधारात्मक प्रचार से लेकर, संस्कृति के जरिए संस्कारों तक के माध्यम से, इस सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ चेतनाशील भी बनाना होगा। इन दोनों के योग से ही इस दैत्य को हराया जाl सकता है, उसके बिना नहीं।

सीपीएम ठीक इसी योग के रास्ते में, अपने पुनर्जीवन की दिशा देख रही है। बेशक, पिछले करीब डेढ़ दशक के दौरान संसद में और आम जन-समर्थन के स्तर पर भी, सीपीएम की तथा आम तौर पर वामपंथ की भी, ताकत काफी घटी है। वामपंथ की ताकत में यह कमी तब और भी ज्यादा आंखों में गड़ने लगती है, जब हम सौ साल बाद वामपंथ की इस दशा को, शताब्दी वर्ष में ही आरएसएस की कामयाबी के साथ रखकर देखते हैं।

बहरहाल, आरएसएस और उसका राजनीतिक बाजू, भाजपा अब अपने बढ़ाव के पठार पर पहुंच गए हैं, जहां से वे नीचे ही उतर सकते हैं। जाहिर है कि उनके राज की नीतियों से आम जनता का बढ़ता असंतोष, इसका एक बड़ा कारण साबित होगा। दूसरी ओर, मेहनतकश जनता का यह बढ़ता असंतोष ही, कम्युनिस्टों के नेतृत्व में मेहनतकशों के संघर्षों में ढलकर, उनकी ताकत बढ़ाने का साधन बनेगा। सीपीएम की 24वीं कांग्रेस का ठीक यही इशारा है कि पार्टी, इस बढ़ते प्रवाह को पहचान रही है और इसके सहारे अपनी नौका आगे बढ़ाने के लिए, संगठन के पाल और चप्पू तैयार करने की जरूरत भी पहचान रही है।

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